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या ते॑ अग्ने॒ पर्व॑तस्येव॒ धारास॑श्चन्ती पी॒पय॑द्देव चि॒त्रा। ताम॒स्मभ्यं॒ प्रम॑तिं जातवेदो॒ वसो॒ रास्व॑ सुम॒तिं वि॒श्वज॑न्याम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā te agne parvatasyeva dhārāsaścantī pīpayad deva citrā | tām asmabhyam pramatiṁ jātavedo vaso rāsva sumatiṁ viśvajanyām ||

पद पाठ

या। ते॒। अ॒ग्ने॒। पर्व॑तस्यऽइव। धारा॑। अस॑श्चन्ती। पी॒पय॑त्। दे॒व॒। चि॒त्रा। ताम्। अ॒स्मभ्य॑म्। प्रऽम॑तिम्। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। वसो॒ इति॑। रास्व॑। सु॒ऽम॒तिम्। वि॒श्वऽज॑न्याम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:57» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री पुरुष के कृत्य को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) स्त्रि या पुरुष ! (ते) आपकी (या) जो (असश्चन्ती) असम्बन्ध रखती हुई (चित्रा) अद्भुत (पर्वतस्येव) मेघ के (धारा) प्रवाह के सदृश वाणी बुद्धि को (पीपयत्) पीती है (ताम्) उस (प्रमतिम्) उत्तम बुद्धि को और (विश्वजन्याम्) जिससे सम्पूर्ण सन्तान उत्पन्न होता है उस (सुमतिम्) उत्तम बुद्धिवाली स्त्री वा उत्तम बुद्धिवाले पुरुष को आप (रास्व) दीजिये। हे (देव) उत्तम गुणों से युक्त (वसो) सर्वत्र वसते हुए (जातवेदः) उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान भगवन् ईश्वर ! आप (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये ऐसी विद्या बुद्धि वाणी और ऐसी स्त्री तथा ऐसे पति के कृपा से दीजिये, जिससे कि हम लोग सदा सुखी होवें ॥६॥
भावार्थभाषाः - स्त्री और पुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य से विद्या और उत्तम शिक्षाओं को प्राप्त होकर युवावस्था में तुल्य गुण-कर्म और स्वभावों की परीक्षा करके द्विगुण बल और अवस्थावाले पति और प्रेमपात्र स्त्री को प्राप्त होकर गृहाश्रम में सुख से रहें ॥६॥ इस सूक्त में वाणी बुद्धि गृहाश्रम और स्त्री पुरुषों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्तावनवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषयोः कृत्यमाह।

अन्वय:

हे अग्ने ते यासश्चन्ती चित्रा पर्वतस्येव धारा पीपयत्तां प्रमतिं विश्वजन्यां सुमतिं त्वं रास्व। हे देव वसो जातवेदो भगवँस्त्वं दम्पतीभ्योऽस्मभ्यमेतां विद्यां प्रज्ञां वाचमीदृशीं स्त्रियमीदृशं पतिं च कृपया देहि यतो वयं सर्वदा सुखिनो भवेम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (या) (ते) तव (अग्ने) स्त्रि पुरुष वा (पर्वतस्येव) मेघस्येव (धारा) प्रवाहवद्वाणी। धारेति वाङ्नाम। निघं० १। ११। (असश्चन्ती) असमवयन्ती (पीपयत्) पिबति (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (चित्रा) अद्भुता (ताम्) (अस्मभ्यम्) (प्रमतिम्) प्रकृष्टां प्रज्ञाम् (जातवेदः) जातेषु विद्यमानेश्वर (वसो) सर्वत्र वसन् (रास्व) देहि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (सुमतिम्) शोभनप्रज्ञां स्त्रियमुत्तमप्रज्ञं पुरुषं वा (विश्वजन्याम्) विश्वं समग्रमपत्यं जायते यस्यास्ताम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीपुरुषैर्ब्रह्मचर्य्येण विद्यासुशिक्षाः प्राप्य युवावस्थायां तुल्यगुणकर्मस्वभावान्त्सुपरीक्ष्य द्विगुणबलायुष्कं पतिं हृद्यां च प्राप्य गृहाश्रमे सुखेन निवसनीयमिति ॥६॥ । अत्र वाक्प्रज्ञागृहाश्रमस्त्रीपुरुषविवाहकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति सप्तपञ्चाशत्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्री व पुरुषांनी ब्रह्मचर्याने विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करून युवावस्थेत समान गुण, कर्म, स्वभावाची परीक्षा करून दुप्पट बल व अवस्था असणाऱ्या पती व प्रिय स्त्रीसह गृहस्थाश्रमात सुखी राहावे. ॥ ६ ॥